छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार
आपकी 'क्वालिफिकेशन्स' कुछ सूट नहीं करती हैं।"हँसी का एक फ़व्वारा तेजी से कमरे में फैल गया।राजेश्वर ने कुछ कहा, पर शोर में उसकी बात अनसुनी रह गई और वह हँसी के शान्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। लोग हँस-हँसकर दुहरे-तिहरे हुए जा रहे थे। सत्यव्रत के मुख पर करुणा और उभर आई थी। वह हँसी बन्द होने की प्रतीक्षा में क्षमायाचना जैसा भाव लिए राजेश्वर की ओर निहारे जा रहा था।
राजेश्वर मन का गुबार मुँह में लिए बैठा था। एक भाव तेजी से उसके मन में दौड़ रहा था कि ये सब दयनीय हैं। इन हँसनेवालों में से अधिकांश इंटरव्यू खत्म होते ही पिटे हुए सिपाही की तरह कमरे से बाहर निकलेंगे और तब वह उनकी ओर जिस अकड़ से देखेगा यह विजेता की अकड़ होगी। मगर अब...अब तो उसकी हेठी हुई। बड़ी हेठी हुई।...और इस विचार का अनुसरण एक तीखे से वाक्य ने किया जिसके उच्चरित होने से पूर्व ही अचानक मास्टर उत्तमचन्द्र बराबर वाले प्रिंसिपल के कमरे से यहाँ आ गए।गंजा सिर, चौड़ा माथा, लम्बा-सा मुँह, उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, लम्बा कद और उस पर खादी का लम्बा-सा कुरता-पाजामा ।
उत्तमचन्द को देखते ही हॉल में खामोशी छा गई और लोग अनायास अपने-अपने स्थान से उठ खड़े हुए।शायद हँसी की आवाज़ मैनेजिंग-कमेटी के सदस्यों के कानों तक भी पहुँच गई थी। और उन्हें अनायास ही यह बोध हो गया था कि काफ़ी देर हो चुकी है, अब इंटरव्यू शुरू हो जाना चाहिए। इसीलिए उन्होंने मास्टर उत्तमचन्द को वहाँ भेजा था। मास्टर उत्तमचन्द ने सबसे बैठने का इशारा करते हुए वाणी में बेहद मिठास लेकर कहा, "आपकी बेचैनी बिलकुल नेचुरल है। मगर प्लीज़, आप थोड़ा-सा धैर्य और रखें, पाँच मिनट के अन्दर ही हम इंटरव्यू शुरू कर देंगे। बस सेक्रेटरी साहब की वेट कर रहे हैं। और मास्टर उत्तमचन्द ने मुस्कराते हुए सबकी ओर देखा।
लोगों ने सोचा, वे कुछ और कहेंगे पर तभी वे आकस्मिक रूप से बाहर निकल गए।पाठक ने कहा, "मुझे आशा थी कि भाषण थोड़ा लम्बा चलेगा। मगर बेहद शरीफ़ आदमी निकला।" राजेश्वर ठाकुर जो मास्टर उत्तमचन्द के आ जाने के कारण अपनी बात कहने का अवसर न पा सका था और जिसके भीतर अपनी हेठी की भावना अभी भी कुलबुला रही थी, तेजी से बोला, "आपकी सारी आशाएँ गलत ही निकलती हैं, पाठकजी।"इतना कहकर राजेश्वर ने हल्का-सा पाज दिया। लोगों की प्रतिक्रिया देखी। कोई नहीं हंसा तो उसे विफलता का अहसास और जोरों से हुआ; बोला, "हाँ तो माथुर साहब, आप मेरे बारे में फरमा रहे थे कि मेरी 'क्वालिफिकेशन्स' सूट नहीं करती। आइए तो फिर दस-बीस रुपए की शर्त हो जाए इसी बात पर!फिर ठाकुर थोड़ा रुका और लोगों के भावशून्य-से चेहरों पर अपनी बात की प्रतिक्रिया खोजते हुए बोला, "किसमें इतना गुर्दा है जो मेरा सलेक्शन रोक दे!
कॉलेज की ईट-से-ईट बज जाएगी। ठकुरात के तीन सौ लड़के हैं कॉलेज में। अगर मुस्लिम स्कूल में चले गए तो यहाँ तनख्वाह भी नहीं पटेगी मास्टरों की।" फिर थोड़ा रुककर बोला, "अपना क्या है, नौकरी मिली न मिली ।" फिर सत्यव्रत की ओर इशारा करके कहा, "मुझे तो इस बेचारे पर तरस आ रहा है। मेरे घर छह हलों की खेती है। एक हाली को एक मास्टर की तनख्वाह देता हूँ। न होगा एक हल ही संभाल लूँगा, पर इनके बस का तो वह भी नहीं।"माथुर ने कहा, "आपका हृदय बहुत दयावान है। आपकी दया का सहारा पाकर सत्यव्रतजी का उद्धार हो गया। आप धन्य हैं।"एक हल्का-सा ठहाका फिर गूंज उठा। ठाकुर का गोल मुंह और विकृत हो गया।
उसका जतन से संभाला हुआ सन्तुलन बिखर पड़ा। कनपटियाँ सुर्ख हो गईं। बड़ी-बड़ी आँखों से चिंगारियों-सी उगलते हुए बोला, "तो साफ़-साफ़ ही सुन लीजिए। असिस्टेंट टीचरों और प्रोफेसरों का सेलेक्शन कभी का हो चुका। यह इंटरव्यू तो एक फारमेल्टी है, फारमेल्टी।" फिर उँगली से कोने में बैठे असरार साहब की ओर इशारा करते हुए राजेश्वर बोला, "मेरे साथ दूसरा एपाइंटमेंट इनका होगा। ये कोतवाल साहब के आदमी हैं, क्यों साहब ?" और उसने असरार की ओर देखा।माथुर ने धीरे से पाठक के कान में कुछ कहा।